संवाद में “भारतीय कला दृष्टि और आध्यात्म“ विषय पर राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष ने बताया कि भारतीय कला दृष्टि समग्र जीवन को प्रतिबिंबित करती है। मानव जीवन के लौकिक और लोकोत्तर सभी पक्ष हमारी सारी कलाओं में चित्रित और निर्मित होते हैं।
जीवन के अधूरे छूटे हुए स्वप्नों, आकांक्षाओं और लक्ष्यों को हम कला के माध्यम से पूर्ण कर आनन्द अनुभव करते हैं। कलाओं में आध्यात्मिक दृष्टि के कारण कलाकार सम्पूर्ण चराचर को अपने से अलग नहीं समझता और उन्हें अपनी निर्मिति में संयोजित करता है। जो कला मम से ममेतर को, प्रत्यक्ष से परोक्ष को और लौकिक से अलौकिक को जोड़ती है वह उतना ही आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होती है।
चित्र, नृत्य, मूर्ति, संगीत ये सभी कलाएं ऐन्द्रिक सुखानुभूति विषयों के स्तर से ऊपर मनुष्य को उठाकर आनन्दमय कोष की ओर ले जाती है। यही उनके आध्यात्मिक स्तर का प्रमाण है। शास्त्रों में इस आनन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा जाता है।
“सौन्दर्य शास्त्र की भारतीय अवधारणा“ विषय पर राजस्थान विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग तथा पत्रिका एवं जन संचार विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. नंदकिशोर पाण्डेय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए बताया कि भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में आध्यात्मिकता की प्रस्तुति है। इसी दृष्टि से वाल्मीकि रामायण से लेकर अभी तक के साहित्य और शिल्प में इसे प्रस्तुत किया जा रहा है। भारतीय वाद्य, संगीत, नाट्य तथा निर्माण कला अध्यात्म को ही पुष्ट करते हैं। इसके माध्यम से भारतीयों ने जीवन जीने की कला सीखी है और मोक्ष की साधना की है।
कला संवाद का संचालन संस्कार भारती जोधपुर प्रांत के अध्यक्ष जितेन्द्र जालोरी ने किया और जयपुर प्रांत की अध्यक्ष डॉ. मधु भट्ट तैलंग ने सभी का आभार व्यक्त किया।